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हास्य के गुब्बारे

काका हाथरसी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3703
आईएसबीएन :81-288-1021-9

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लोगों के प्रश्नों तथा काका द्वारा दिये गये उत्तरों का संकलन...

Hasya Ke Gubbare

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राकृतिक चिकित्सा-शास्त्रियों का अभिमत है
कि स्वास्थ्यलाभ के लिए प्रसन्नचित रहना परमावश्यक है।
जो व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहता है,
वह कभी बीमार ही नहीं पड़ सकता।

साहित्य में नवरस होते हैं
और उनमें से कोई एक रस ही किसी व्यक्ति को विशेष रूप से प्रभावित करता है
परंतु सत्य यही है कि ‘हास्यरस’ सभी रसों का सम्राट् है। इससे न केवल साहित्यानुभूति का आनंद आता है,
प्रत्युत् आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक हर प्रकार के लाभ होते हैं।
हिंदी-साहित्य में ‘काका हाथरसी’ को हास्यरस सम्राट् माना जाता है।
प्रस्तुत पुस्तक ‘हास्य के गुब्बारे’ लोगों के प्रश्नों तथा काका द्वारा दिए गए उत्तरों का संकलन है,
जिससे निःसंदेह पाठक वर्ग लाभान्वित होगा।

हँसी के गुब्बारे में
काका के गुबार

इस वर्ष हमारे 82 वर्षीय काकाजी ने दृढ़ता से कहा कि मैं अब मरना चाहता हूँ। सब रंग देख लिए बेटा, और सब इच्छाएँ पूरी हो गईं, अतः स्वस्थ हालत में मर जाऊँ तो ठीक है। यही इस साल के हास्य-समारोह के बाद भी नहीं मरा तो पंजाब चला जाऊँगा और फिर पुनर्जन्म में ‘काके’ बनकर काका हाथरसी पुरस्कार प्राप्त करूँगा।
हम घबराकर काकी के पास पहुँचे और कहा कि काकू आजकल मरने की बात बहुत कर रहे हैं। वे बोलीं-अमेरिका और लंदन से लौटकर बौरा गए हैं। मैं जानूँ हूँ, वे आजकल चाहे जहाँ, चाहे जिस पर मर जाते हैं। न बच्चों का ख्याल रखते हैं, न बुढ़ापे का। जब हमने मरने का ठीक अर्थ समझाया तो बोलीं-‘काका की बात और कुत्ता चले बरात !’
बालकवि बैरागी से जब काका ने राय माँगी कि कहाँ मरना ठीक है, देश में या विदेश में, तो वे बोले-‘काका, मुझे ज्यादा जानकारी नहीं, है फिर भी इतना कह सकता हूँ कि जहाँ भी मरोगे, वहीं आपकी समाधि बन जाएगी, इसलिए चिंता की जरूरत नहीं।’

डा. वीरेंद्र ‘तरुण’ काका की बात सुनकर खूब हँसे, मगर जल्दी ही गंभीर होकर बोले ‘हाय काका’ ! आप तो मरकर भी अमर हो जाएँगे लेकिन मैं तो आपके बिना, जीते जी मर जाऊँगा। महात्मा गांधी की सौगंध खाकर कहता हूँ काका, यदि आप नहीं माने तो आपके मरने से एक दिन पहले मैं पूरे हाथरस में हड़ताल करा दूँगा। काका मंद-मंद मुस्करा दिए।
सुरेंद्र शर्मा बोले-‘मैं जाणूँ हूँ, काका को मरने की आदत ही नहीं है। अगर मर गए तो मैं चार लाइनां की जगह छै लाइनां का छक्को सुनाना सुरू कर दूँगा।’
ओमप्रकाश ‘आदित्य’ जब काका को मिले तो उन्होंने कहा-‘काका, इस समय देश पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं, इसलिए जल्दी मत करिए। यदि हो सके तो इस समय डुप्लीकेट से काम निकाल लीजिए। आपके हास्य की हुंकार नयी पीढ़ी को प्रेरणा ही नहीं, हौसला और हिम्मत भी देती है।’
कवयित्री एकता शबनम बोलीं-‘भली चलाई काका की, 20 साल से रोजना कर रहे हैं मरने की बात, लेकिन अभी तक हमारी छाती पर मूँग दल रहे हैं।’

अंत में हमें तरकीब सूझी। हम कवि अशोक चक्रधर के पास पहुँचे और काका का किस्सा सुनाकर उनसे प्रार्थना की कि तुम्हारे पास मन की बातें जान लेने वाला एक यंत्र है, उससे वास्तविक स्थिति का पता लगाएँ। अशोक चक्रधर ने यंत्र से पूछा तो उससे आवाज आई-‘धोखे में मत रहियो बच्चू, काका की इस कविता को भूल गया क्या।

हे प्रभो आनंदमय मुझको यही उपहार दो,
सिर्फ मैं जीता रहूँ तुम और सबको मार दो।’

कविवर भोंपू बोले-‘ग़लत एकदम गलत। मेरी कुंडली में लिखा है कि काका हाथरसी के हाथों से हास्य पुरस्कार मिलेगा। इसलिए जब तक मैं न चाहूँ, तब तक हमारे काका को साला काल भी नहीं मार सकता।’
हुल्लड़ मुरादाबादी ने कहा-‘काका, पिछले 15 साल से मरने की बात कर रहे हैं। पहली विदेश यात्रा के वक्त उन्होंने कहा था कि मैं तो यार हवाई जहाज में मरना चाहता हूँ। सौ-दो-सौ वी.आई.पी. के साथ मरने का मजा ही अलग है, अस्तपताल में पड़े-पड़े अकेले क्यों मरें। बहुत बाद में मालूम हुआ कि वे हवाई जहाज में मरे तो जरूर, लेकिन एयर हॉस्टेल पर। और उसके बाद एयर हॉस्टेल पर कविता भी बना डाली। बालकवि बैरागी इसके गवाह हैं।
कवि ‘भयभीत’ हाथरसी बोले-‘काका मरना चाहते हैं, वर्षों से सुनते-सुनते मैं तो अधमरा हो गया हूँ। अब तो ऐसा लगता है कि वे मुझे मारकर ही मरेंगे।’

रामरिख मनहर ने काकाजी से पूछा कि ‘यह मरने का भूत आप पर क्यों सवार है, काका ? हम तो चाहते हैं कि आप शतायु हों और मैं आपके कार्यक्रमों का संचालन करता रहूँ।’ काका ने कहा-‘यार, मेरे देखते-देखते कितने कवि काल-कवलित हो गए। निराला जी, पंत जी, रमई काका, बेढब बनारसी, महादेवी वर्मा, देवराज दिनेश, दिनकर जी, रंगजी, त्यागीजी, चेतन जी, इत्यादि। अब अच्छा नहीं लगता ज़्यादा जीना।’
मनहर जी बोले, ‘मैं समझ गया, आप ज्यादा फीस के लालच में यमराज से लिखा-पढ़ी कर रहे हैं, उनका उत्तर आने का इंतजार कर रहे हैं।’

कुछ दिनों पहले की बात है, काकाजी नेपाल कवि सम्मेलन से आ रहे थे तो पटना के प्लेटफार्म पर शैल चतुर्वेदी मिल गए और आँख मारकर बोले-‘क्यों काका, आप अभी तक ‘ऊपर’ नहीं गए क्या, आप तो कह रहे थे कि बुलावा आ गया है ?’ काका ने कहा ‘टीम का चुनाव कर रहा हूँ।’ शैल बोले-‘मैं कवि सम्मेलन की नहीं, आपके स्वर्ग सिधारने की बात कर रहा हूँ।’ काका बोले ‘यार, मैं सोच तो कई वर्षों से रहा हूँ। लेकिन पता नहीं लगता कि पहले घल्ला फूटेगा या मल्ला।’ काका की उँगली शैल चतुर्वेदी की ओर थी। वहीं गोपालप्रसाद व्यास आ गए बोले-‘काका, तुम्हें तो पद्मश्री मिल गई, इसलिए कभी भी मर सकते हो, लेकिन अपने जीते जी हमको ‘पद्मभूषण’ तो मिल जाने दो।’ काका ने कहा ‘गुरु, आपकी गाड़ी आ रही है और मेरी लेट है। आप चलें; मैं भी आ जाऊँगा।’

अपनी ट्रेन में जब काकाजी चढ़े तो प्रथम श्रेणी के कूपे में डायमंड पाकेट बुक्स के मालिक श्री नरेंद्र जी मिल गए। उन्होंने कहा ‘काका, अब तक आपकी 42 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, आप प्रतिवर्ष एक पुस्तक तैयार कर ही लेते हैं। यदि पाठ-पुस्तकें और लिख दें तो प्रकाशकों की ओर से आपके साहित्य की स्वर्ण जयंती मन जाए।’
‘स्वर्ण तो बहुत महँगा हो गया है बेटा, उससे तो सोना ही अच्छा है।’ यह कहते हुए काका जी आँखें मूँदकर बर्थ पर पसर गए। नरेंद्र जी घबरा गए और जल्दी से सौ-सौ के नोटों का पंखा बनाकर हवा करने लगे। कुछ ही सेकिंडों में काका ने आँखें खोल दीं और नोटों का पंखा नरेंद्र जी से छीनकर कहने लगे, ‘तुम आराम करो नरेंद्र, मैं स्वयं ही इस पंखे से हवा करता रहूँगा।’
अपने प्रकाशन की 43 वीं किस्त के रूप में काका के गुबार, गुब्बारे के रूप में प्रकट हुए, जो आपके सामने हास्य की हवा में लहरा रहे हैं, आप भी लहराइए। हँसिए और हँसाइए अपनी सेहत में चार चाँद लगाइए।

1 जून 1988
संगीत कार्यालय हाथरस,

संपादक
लक्ष्मीनारायण गर्ग


हँसी के गुब्बारे

प्रश्न पुलिंदा-1


‘पधारिए श्रीमती काकी, हाँफ क्यों रही हो, मैडम ?’
‘एक सप्ताह की डाक का पुलिंदा लादकर लाए हैं हम, उठाकर तो देखो ?’
‘उठाकर तो तुमने देख लिया, हमको तो सुनाती चलो, किसने क्या लिखा है, टेप रेकार्डर स्टार्ट कर दो। हम उत्तर देते चलेंगे, टेप होते रहेंगे। टाइपिस्ट आएगा, टाइप कर देगा।’

‘लेकिन यह मुसीबत क्यों पाल रखी है आपने ?’

‘मुसीबत मत समझो इसको डियर, हम प्रश्नों के उत्तर कविता में देकर पाठकों की शंका करेंगे क्लियर, फिर यह विविध भारती द्वारा प्रसारित होकर सारी दुनिया में फैल जाएँगे। प्रश्नकर्ता प्रसन्न होकर हमारी-तुम्हारी जै-जैकार मनाएँगे।’
‘अच्छा जी, हो गई जै जैकार, तो सुनो यह पहिला प्रश्न है मेरठ से श्री...
‘ठहरो प्रश्नकर्ता का नाम -पता तो उसके पात्र में ही रहने दो, तुम सिर्फ प्रश्न बोलती चलो, हम उत्तर देते चलें।’

प्रश्न : काका जी से मैं पूछना चाहता हूँ कि यदि आपको बुढ़ापे के बाद एकदम छोटा-सा बालक बना दिया जाए तो क्या होगा ?

उत्तर : इस जीवन को पूरा करके जन्म दुबारा ले लूँगा,
मम्मी जी का मिल्क पिऊँगा, गिल्ली डंडा खेलूँगा।
नित्य नियम से बस्ता लेकर जाऊँगा मैं पढ़ने को
 ओलंपिक में पहुँचूँगा मल्लों से कुश्ती लड़ने को।
हँसी खुशी के गीत सुनाकर सबका मन बहलाऊँगा,
इसी कला से काका वाला पुरस्कार पा जाऊँगा।

प्रश्न : सफल हुआ उद्देश्य आपका, हँसने और हँसाने का किस दिन अवसर पाया था, काकी से बेलन खाने का ?

उत्तर : बेलन में गुन बहुत हैं कैसे तुम्हें बतायँ,
स्वाद चाखना होय तो कभी हाथरस आयँ।
 कभी हाथरस आयँ, उपाय और है दूजा
 अपने ही घर में करवा लो बेलन पूजा।
क्वांरे  हो तो बहू मरखनी लेकर आओ
 फिर कविताएँ लिखो धड़ाधड़ कवि बन जाओ।


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